463.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम सफर (फतह मक्का) में उननीस दिन ठहरे और इस अरसे में कसर करते रहे। हिजरत के चौथे साल कसर की आयत नाजिल हुई, मगरिब और फजर की फर्ज नमाज में कसर नहीं है और न ही उस सफर में कसर की इजाजत है जो गुनाह की नियत से किया जाये। सुन्नत की पैरवी का तकाजा यही है कि सफर के बीच कसर की नमाज पढ़ी जाये, अगरचे पूरी जाइज हैं फिर भी अफजल कसर है, हदीस में जिस सफर का जिक्र है, वह फतह मक्का का है, चूंकि यह हंगामी दिन थे और फुरस्त के लम्हे हासिल होने का इल्म न था। इसलिए इन दिनों में कसर करते रहें यकीनी इकामते पर चार दिन तक के लिए कसर की इजाजत है। बशर्ते कि सफर की दूरी भी कम से कम नौ मील हो।
464.अनस रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि हम नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम के साथ मदीना से मक्का तक गये। आप इस दौरान दो दो रकअत पढ़ते रहे, यहां तक कि हम लोग मदीना लौट आये। आप से पूछा गया कि आप मक्का में कितने दिन ठहरे, आपने फरमाया कि हम वहां दस दिन ठहरे थे। इस हदीस में जिस सफर का बयान है, वह आखरी हज का सफर है। आप आठ जुलहिज्जा तक मक्का में ठहरे और कसर करते रहे, फिर आठ जुलहिज्जा को मिना रवाना हुये। जुहर की नमाज़ आपने मिना में अदा की, मालूम हुआ कि ठहरने की मुद्दत में चार दिन तक नमाज़ को कसर किया जा सकता है। आप मक्का में चार जुलहिज्जा को पहुंचे थे।
465.इबने उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि मैंने नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम अबू बकर सिद्दीक और उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो के साथ मिना में दो दो रकअत पढ़ी और हजरत उस्मान के साथ भी खिलाफत में दो ही रकअत पढ़ी, उसके बाद उन्होंने पूरी नमाज पढ़ना शुरू कर दी। हज के दिनों में मिना, अरफात, मुजदलफा में नमाज़ कसर ही पढ़ी जाये, हज के सफर की बिना पर यह छूट हर हाजी के लिए है। हजरत उसमान रजि अल्लाह तआला अन्हो ने एक खास मजबूरी की बिना पर नमाज पूरी पढ़ना शुरू कर दी थी। अगरचे हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद ने इस पर अपनी सख्त नाराजगी जाहिर की थी, जिसका जिक्र अगली रिवायत मैं है।
466.हारिसा बिन वहब रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होने फरमाया कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अमन की हालत में मिना में दो रकअत नमाज (कसर) पढ़ायी। अगरचे कुरआन में सफर में कसर करने को हंगामी हालत के साथ बयान किया गया है, फिर भी इस हदीस से साबित होता है कि कि सफर के दौरान अमन की हालत में भी कसर की जा सकती है।
467.इबने मसऊद रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने बताया कि हहरत उसमान ने मिना में चार रकअत पढ़ायी हैं तो उन्होंने ''इनना लिललाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन'' पढ़ा और फरमाया कि मैंने आपके साथ मिना में दो रकअतें पढ़ीं और हजरत अबू बकर और हजरत उमर के साथ भी मिना में दो दो रकअतें पढ़ी, काश कि चार रकअतों के बजाये मेरे हिस्से में वही दो मकबूल रकअततें आयें। रिवायत से यह साबित नहीं होता कि हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद के नजदीक सफर के दौरान कसर करना वाजिब है,क्योंकि अगर ऐसा होता तो “इनना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन” पढ़ने को काफी नहीं समझते।दूसरी रिवायतों के पेशे नजर उनसे जब रिवायत किया गया कि आपने चार रकअत क्यों पढ़ी हैं? तो जवाब दिया कि ऐसे मौके पर इख्तिलाफ करना बुराई का सबब है, अगर सफर के दौरान पूरी नमाज़ पढना बिदअत होता तो बिदअत से इख्तिलाफ करना तो बरकत का सबब है।
468.अबू हुरैरा रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है उन्होंने कहा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जो औरत अल्लाह पर ईमान और कयामत के दिन पर यकीन रखती है, उसे जाइज नहीं कि एक दिन रात की दूरी इस हाल में तय करे कि उसके साथ ऐसा आदमी न हो, जिससे उसका निकाह हराम हो। इससे इमाम बुखारी ने यह साबित किया कि कसर के लिए दूरी का कम से कम इतना होना जरूरी है जो एक दिन और रात में तय हो सके, इस मसले में लगभग बीस कौल हैं, बेहतर बात यह है कि हर सफर में कसर की जा सकती है, जिसे आम तौर पर सफर कहा जाता है, हदीस में इसकी हद तीन फरसंग से की गई है, जो नौ मील के बराबर है। (और अल्लाह बेहतर जानता है।)
469.अब्दुल्लाह बिन उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा कि जब आपको सफर की जल्दी होती तो मगरिब की नमाज देर करके तीन रकअत पढ़ते थे। फिर सलाम फेर कर कुछ देर ठहरते, उसके बाद इशा की नमाज के लिए उठते और उसकी दो रकअतें पढ़कर सलाम फेर देते थे और इशा के बाद निफ़्ल नमाज न पढ़ते, फिर आधी रात को उठते और तहज्जुद की नमाज अदा फरमाते। मतलब यह है कि मगरिब की नमाज़ को सफर में कसर की बजाये पूरा अदा किया जाये, इस पर उलमा का इत्तिफाक है।
470.जाबिर बिन अब्दुल्लाह रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सवारी की हालत में बगैर किब्ला रूख हुये नफ़्ल नमाज़ पढ़ लेते थे। इस हदीस पर इमाम बुखारी ने यूँ उनवान कायम किया है, नफ़्ल नमाज़ सवारी पर अदा करना” अगरचे जानवर का रूख किब्ला की तरफ न हो, इमाम साहब की किताबुल मगाजी में खुलासे के मुताबिक यह वाया अनमार की जंग का है, मदीना से जाने के लिए किब्ला बायीं तरफ रहता है।
471.अनस रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उन्होंने गधे पर सवारी की हालत में नमाज़ पढ़ी, जबकि उनके किब्ले का रूख बायीं तरफ था, जब उनसे पूछा गया क्या आप किब्ले खिलाफ नमाज पढ़ते हैं तो उन्होंने कहा कि अगर मैं रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहि वसल्लम को ऐसा करते न देखता तो कभी ऐसा न करता। नफ़्ल नमाज़ के लिए भी जरूरी है कि शुरू करते वक़्त मुह किब्ला रूख हो, बाद में वह सवारी जिधर भी रूख करे नफ़्ल नमाज पढ़ना जाइज है।
472.इबने उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि मैं सफर में नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम के साथ रहा। मैंने कभी आपको सफर में नफ्ल नमाज पढ़ते नहीं देखा और अल्लाह तआला का इरशाद है, "यकीनन तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बेहतरीन नमूना हैं।" मालूम हुआ कि सफर में पांचों वक्त की नमाज में दो रकअत ही काफी है, सुन्नत न पढ़ना भी नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम का तरीका है।
473.आमिर बिन रबिआ रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने देखा कि नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम रात को अपनी सवारी पर नफ़्ल नमाज पढ़ते थे। सवारी जिधर चाहती आपको ले जाती। इमाम बुखारी का मतलब यह है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैंहि वसल्लम ने फर्ज नमाजों से पहले और बाद की हमेशा पढ़ी जाने वाली सुन्नतें नहीं पढ़ी, हां दूसरी नफ्ल नमाजें जैसे इश्राक वगैरह पढ़ना स्बित है, इसी तरह फजर की नमाज की दो सुन्नतें और वित्र पढ़ना भी साबित है।
474.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत के है, उन्होंने फरमाया कि रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहि वसल्लम सफर में जुहर और असर की नमाज़ को और मगरिब और इशा की नमाज को मिलाकर पढ़ लेते थे। जुहर के वक़्त असर और मगरिब के वक्त इशा पढ़ लेने को जमा तकदीम और असर के वक्त जुहर, इशा के वक़्त मगरिब पढ़ने को जमा ताखीर कहते हैं। सफर में जैसा भी मौका नसीब हो दो नमाजों को जमा किया जा सकता है।
475.इमरान बिन हुसैन रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने बताया कि मुझे बवासीर थी तो मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ऐसी हालत में नमाज़ पढ़ने के बारे में पूछा, आपने फरमाया कि खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, अगर ऐसा न हो सके तो बैठकर अगर यह भी न हो सके तो पहलू के बल लेट कर नमाज अदा करो। बैठकर और लेटकर नमाज पढ़ने से सवाब में जरूर फर्क आ जाता है, क्योंकि हदीस के मुताबिक बैठकर नमाज़ पढ़ने वाले को खड़े होकर नमाज पढ़ने वाले से आधा सवाब मिलता है। लेटकर नमाज पढ़ने वाले को बैठकर नमाज पढ़ने वाले से आधा सवाब मिलता है। नोट: यह उस वक्त है जब इन्सान बिना किसी बीमारी के बैठकर नमाज पढ़े और फर्ज नमाज बगैर मजबूरी के बैठकर पढ़ना जाइज नहीं है।
476.आइशा रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहि वसल्लम को तहज्जुद की नमाज कभी बैठकर पढ़ते नहीं देखा, लेकिन जब आप बूढ़े हो गये तो आप बैठकर किरअत फरमाते, फिर जब रूकू करना चाहते तो खड़े होकर तकरीबन तीस चालीस आयतें पढ़कर रूकू फरमाते | इससे और अगली हदीस से यह साबित हुआ कि बैठकर नमाज शुरू करने से यह लाजिम नहीं आता कि सारी नमाज़ बैठकर पढ़ें, क्योंकि जैसा बैठकर शुरू करने के बाद खड़ा होना सही है, इसी तरह खड़े होकर शुरू करने के बाद बैठ जाना भी जाइज है। दोनों में कोई फर्क नहीं है। हजरता आइशा से ही एक रिवायत में इजाफा भी आया है कि आप दूसरी रकअत में भी ऐसा ही करते और नमाज से फारिग हो जाते और मुझे जगा हुआ देखते तो मेरे साथ बातचीत करते और अगर मैं नींद में होती तो आप भी लेट जाते।
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