444.आइशा रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मेरे पास तशरीफ लाये। उस वक्त मेरे यहां दो लड़कियां बैठी हुई बुआस की जंग के गीत गा रही थी। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुंह फेर कर लेट गये। इतने में हजरत अबू बकर आये तो उन्होंने मुझे डांटकर कहा कि नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम के सामने यह शैतानी आवाजें? इस पर रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी तरफ मुंह करके फरमाया, उन्हें छोड़ दो, फिर जब हजरत अबू बकर सिद्दीक चले गये तो मैंने उन लड़कियों को इशारा किया तो वह चली गई। इस रिवायत के आखिर में है कि यह वाक्या ईद के दिन हुआ। जबकि हब्शी मस्जिद में बरछियों और ढ़ालों से जिहाद की मश्कों में लगे थे। यह हदीस गाने बजाने के लिए दलील नहीं है, क्योंकि एक रिवायत में हजरता आइशा ने सराहत की है कि वह दोनों गाने वाली कलाकार न थी। सिर्फ आम लड़कियां थी, जो ईद के दिन खुशी जाहिर कर रही थी।
445.अनस रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, कि रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ईदुलफित्र के दिन जब तक कुछ खुजूरें न खा लेते, नमाज के लिए न जाते और एक रिवायत है कि आप ताक खुजूरें खाते थे। मालूम हुआ कि ईदुलफित्र के दिन नमाज़ से पहले मीठी चीजें खाना बेहतर है, शर्बत पीना भी सही है। अगर घर में न हो तो रास्ते में या ईदगाह पहुंचकर खा-पी ले इसका छोड़ना मकरूह है, बेहतर है कि ताक खुजूरों को इस्तेमाल किया जाये।
446.बराअ बिन आजिब रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने कहा कि मैंने नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम को खुतबे में इशारा फरमाते सुना, आपने फरमाया कि आज के इस दिन में पहला काम जो हम करेंगे, वह यह कि नमाज पढ़ेंगे, फिर वापस जाकर कुर्बानी करेंगे तो जिसने ऐसा किया, उसने हमारे तरीके को पा लिया। इमाम बुखारी ने इस हदीस पर इन लफ़्जों के साथ उनवान कायम किया है। “मुसलमानों के लिए ईद के दिन पहली सुन्नत का बयान'' मुसनद इमाम अहमद, तिरमजी और इबने माजा की रिवायत में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ईदुलअज़हा के दिन वापस आकर अपनी कुर्बानी का गोश्त खाया करते थे।
447.बराअ बिन आजिब रजि अल्लाह तआला अन्हो से ही रिवायत है, उन्होंने कहा कि नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने ईदुलअज॒हा में नमाज़ के बाद हमारे सामने खुत्बा इरशाद फरमाया तो कहा जो आदमी हमारी तरह नमाज़ पढ़े और हमारी तरह कुर्बानी करे तो उसका फर्ज पूरा हो गया और जिसने नमाज से पहले कुर्बानी की तो नमाज से पहले होने की बिना पर कुर्बानी नहीं है। इस पर बराअ के मामूं जनाब अबू बुरदा बिन नियार ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलैहि वसल्लम! मैंने तो अपनी बकरी नमाज से पहले ही कुर्बान कर दी, क्योंकि मैंने समझा कि आज चूंकि खाने पीने का दिन है, इसलिए मेरी ख्वाहिश थी कि सबसे पहले मेरे ही घर में बकरी कुर्बान की जाये। इस बिना पर मैंने अपनी बकरी कुर्बान कर दी और नमाज के लिए आने से पहले कुछ नाश्ता भी कर लिया। आपने फरमाया कि तुम्हारी बकरी तो सिर्फ गोश्त की बकरी ठहरी (कुर्बानी नहीं हुई)। उन्होंने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! हमारे पास एक भेड़ का बच्चा है जो मुझे दो बकरियों से ज्यादा प्यारा है तो क्या वह मेरी तरफ से काफी हो जायेगा? आपने फरमाया, हां लेकिन तुम्हारे सिवा किसी और को काफी न होगा। कुर्बानी के जानवर के लिए दो दांत होना जरूरी है। इसके बगैर कुर्बानी नहीं होती। हदीस में गुजरी इजाजत सिर्फ अबू बुरदा रजि अल्लाह तआला अन्हो के लिए थी। इससे यह भी मालूम हुआ कि दीन इन्सान के पाक जज्बात का नाम नहीं बल्कि उसके लिए अल्लाह की तरफ से नाज़िल किया गया होना जरूरी है।
448.अबू सईद खुदरी रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ईदुलफित्र और ईदुलअज॒हा के दिन ईदगाह तशरीफ ले जाते तो पहले जो काम करते, वह नमाज़ होती, उससे फारिग होने के बाद आप लोगों के सामने खड़े होते,लोग अपनी सफों में बैठे रहते, तब आप उन्हें नसीहत और तलकीन फरमाते और अच्छी बातों का हुक्म देते। फिर अगर आप कोई लश्कर भेजना चाहते तो उसे तैयार करते या जिस काम का हुक्म करना चाहते, हुक्म दे देते। फिर वापस घर लौट आते। अबू सईद फरमाते हैं कि उसके बाद भी लोग ऐसा ही करते रहे। यहां तक कि मैं मरवान के साथ ईदुलअजहा या ईदुलफित्र में गया। वह उस वक्त मदीना का हाकिम था, तो जब हम ईदगाह पहुंचे तो एक मिम्बर वहां रखा हुआ था जो कसीर बिन सल्त ने तैयार किया था। मरवान ने अचानक चाहा कि नमाज़ पढ़ने से पहले उस पर चढ़े तो मैंने उसका कपड़ा पकड़कर खींचा, लेकिन उसने मुझे झटक दिया और मिम्बर पर चढ़ गया। फिर उसने नमाज से पहले खुत्बा दिया तो मैंने उससे कहा कि अल्लाह की कसम! तुम लोगों ने नबी की सुन्नत को बदल दिया है। उसने कहा अबू सईद खुदरी! वह बात जाती रही जो तुम जानते हो, मैंने जवाब में कहा, अल्लाह की कसम! जो मैं जानता हूँ वह उससे कहीं बेहतर है, जिसे मैं नहीं जानता हूँ इस पर मरवान कहने लगे, बात दरअसल यह है कि लोग हमारे खुत्बे के लिए नमाज़ के बाद नहीं बैठते। लिहाजा मैंने खुत्बे को नमाज़ से पहले कर दिया। हजरत मरवान ने यह तब्दीली अपने इजतिहाद से की थी जो नस के मुकाबले में होने की बिना पर अमल के काबिल न थी। चूनांचे हजरत अबू सईद खुदरी ने इसका नोटिस लिया, इससे यह भी मालूम हुआ कि अगर बादशाह किसी बेहतर काम पर इत्तिफाक न करें तो खिलाफे औला काम को अमल में लाना जाईज है।
449.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो और जाबिर बिन अब्दुल्लाह रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि ईदुलफित्र की अज़ान होती थी और न ही ईदुलअज॒हा की | गुजरी हुई रिवायत में न पैदल चलने का जिक्र है और न ही सवारी पर जाने की मनाही है। जिससे इमाम बुखारी ने साबित किया कि दोनों तरह ईदगाह जाना सही है। फिर भी पैदल जाने में ज्यादा सवाब है। खुत्बा से पहले नमाज का होना ऊपर के बाब से साबित हो चुका है। अगले बाब से भी साबित होता है।
450.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत की है, उन्होंने फरमाया कि मैंने ईद की नमाज रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, अबू बकर, उमर ,और उसमान रजि अल्लाह तआला अन्हो के साथ पढ़ी है। यह सब हजरात खुत्बे के पहले ईद की नमाज पढ़ते थे।
451.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से ही रिवायत है, वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से बयान करते हैं कि आपने फरमाया, किसी और दिन में इबादत इन दस दिनों में इबादत करने से बेहतर नहीं है। सहाबा-ए-किराम ने अर्ज किया कि जिहाद भी नहीं? आपने फरमाया कि जिहाद भी नहीं । हां वह आदमी जो (जिहाद में) अपनी जान और माल को खतरे में डालते हुये निकले और फिर कोई चीज लेकर वापस न लौटे ,बल्कि अपनी जान और माल कुर्बान कर दे । चूंकि यह दिन ज्यादातर लोग गफलत के साथ गुजारते हैं, लिहाजा इन दिनों की इबादत को बड़ी फजीलत वाला करार दिया गया है। नीज यह भी मालूम हुआ कि कम दर्जे का अमल अगर बेहतरीन वक्त में अदा किया जाये तो उसकी फजीलत और ज्यादा हो जाती है।
452.अनस रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उनसे लब्बेक पुकारने के बारे में पूछा गया कि तुम नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ किस तरह करते थे। उन्होंने जवाब दिया कि लब्बेक कहने वाला लब्बेक कहता, उसे मना न किया जाता और इसी तरह तकबीरें कहने वाला तकबीरें कहता तो उस पर भी कोई ऐतराज न करता। ईदैन की रूह यही है कि उनमें तेज आवाज में अल्लाह की बड़ाई और उसकी अजमत का एलान किया जाये, इसका मतलब यह नहीं है कि हज के दिनों में लब्बैक छोड़ दिया जाये, बल्कि लब्बैक कहते हुये तकबीरें भी तेज आवाज में कहीं जायें ।
453.अब्दुल्लाह बिन उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ऊंट या किसी और जानवर की कुर्बानी ईदगाह को में किया करते थे। बेशक ईदगाह में कुर्बानी करना सुन्नत है। मगर हालात के मुताबिक यह सुन्नत अपने घरों और अपनी जगहों पर भी अदा की जा सकती है। |
454.जाबिर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उन्होंने फरमाया कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब ईद का दिन होता तो रास्ता बदला करते, यानी एक रास्ते से जाते तो वापसी के वक्त दूसरा रास्ता इखि्तियार फरमाते थे। रास्ता बदलने में शरई मसला यह है कि हर तरफ सलाम की शान का इजहार हो नीज जहां जहां कदम पड़ेंगे, कयामत के दिन वह निशान गवाही देंगे।
456.आइशा रजि अल्लाह तआला अन्हो की हब्शियों के बारे में रिवायत पहले गुजर चुकी है, यही इस रिवायत में इतना ज्यादा है कि आइशा रजि अल्लाह तआला अन्हो ने फरमाया, जब हजरत उमर रजि ने उन्हें झिड़का तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि इन्हें रहने दो ऐ बनी अरफिदा! आराम और सुकून से खेलो। इमाम बुखारी ने इस हदीस पर इन लफ़्जों के साथ उनवान कायम किया है,अगर किसी को जमाअत के साथ ईद न मिले तो दो रकअत पढ़ ले। क्योंकि इस रिवायत के मुताबिक ईद के दिन का तकाजा यह है कि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जाये, अगर रह जाये तो अकेले अदा कर ली जाये।
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