457.अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने मक्का मुकर्रमा में सूरा नज्म तिलावत की तो सज्दा फरमाया, आपके साथ जो लोग थे, उन सबने सज्दा किया, एक बूढ़े आदमी के अलावा, कि उसने एक मुटठी भर ककरियाँ या मिट्टी लेकर अपनी पेशानी तक उठायी और कहने लगा, मुझे यही काफी है। उसके बाद मैंने उसे देखा कि वह कूफ्र की हालत में मारा गया। तिलावत के सज्दे ज्यादातर इमामों के नजदीक सुन्नत है। कुरआन करीम में अलग अलग जगहों पर तिलावत के पन्द्रह सज्दे हैं और तिलावत के सज्दे में यह दुआ पढ़नी चाहिए "सजदा वजहिया लिल्लजी खलकहू व शकक्का समअहू व बसरहू बिहौलेही व कुव्वतेही'' रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जब सूरा -ए-नज्म की तिलावत फरमायी तो मुश्रिक इस कद्र डरे कि मुसलमानों के साथ वह भी सजदे में गिर गये। अल्लाह बेहतर जानने वाला है।
458.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है, उन्होंने फरमाया कि सूरा “सॉद” का सज्दा जरूरी नहीं है, अलबत्ता मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इसमें सज्दा करतेदेखा है। निसाई में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सॉद के सज्दे के बारे में फरमाया, हजरत दाउद अलैहि सलाम का यह सज्दा तौबा के लिए था और उनकी पैरवी में हम शुक्र के तौर पर सज्दा करते हैं।
459.इबने अब्बास रजि अल्लाह तआला अन्हो से ही रिवायत है कि नबी सल्लललाहु अलैही वसल्लम ने नज्म में सज्दा फरमाया जो अभी अभी अब्दुल्लाह बिन मसऊद की रिवायत में गुजर चुकी है। इस रिवायत में इतना इजाफा है कि आपके साथ उस वक्त मुसलमान, मुश्रिकों, जिन्नों और इनसानों ने सज्दां किया। इमाम बुखारी का मानना यह है कि किसी परेशानी की वजह तिलावत का सज्दा और उसका तरीका से सज्दा-ए-तिलावत वुजू के बगैर किया जा सकता है। लेकिन इमाम साहब का यह इस्तिदलाल सही नहीं है।अल्लाह बेहतर जानता है।
460.जैद बिन साबित रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उन्होंने नवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने सूरा नज्म तिलावत की तो आप हजरात ने उसमें सज्दा नहीं फरमाया। सज्दा न करने की कई वजहों का इमकान हैं, बेहतर बात यह है कि जाइज होने के लिए ऐसा किया गया है। यानी इसका छोड़ना भी जाइज है।
461.अबू हुरैरा रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि उन्होंने ''इज़स्समाउनशक्कत"पढ़ी तो उसमें सज्दा किया। उसके बारे में उनसे पूछा गया तो कहने लगे कि अगर मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इसमें सज्दा करते न देखता तो मैं भी सज्दा न करता। कुछ लोग नमाज में सज्दे की आयत की तिलावत बुरा मानते थे। हजरत अबू हुरैरा रजि अल्लाह तआला अन्हो पर ऐतराज की यही वजह थी। हजरत अबू हुरैरा रजि अल्लाह तआला अन्हो के जवाब से इस ऐतराज की कलई खुल गई।
462.इबने उमर रजि अल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है,उन्हीं ने फरमाया कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हमारे सामने सज्दे वाली सूरत तिलावत फरमाते तो आप सज्दा करते और हम भी सज्दा करते, यहां तक कि हममें से किसी को अपनी पेशानी रखने के लिए जगह न मिलती थी। इसका मतलब यह है कि सज्दा तिलावत की अदायगी फौरन जरूरी नहीं । इसे बाद में अदा किया जा सकता है। अगर हालात ऐसे हो कि सज्दे के लिए गुंजाईश न हो तो उसे बाद में भी अदा किया जा सकता है।
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